कोरोना वायरस के संक्रमण की अचूक पहचान के लिए अभी भी कोई सस्ता, त्वरित और सरल उपाय नहीं है..

नये कोरोना वायरस ‘सार्स-कोव-2’ के कारण, कुछ ही महीनों के भीतर, पूरे विश्व में फैल चुकी ‘कोविड-19’ नाम की वर्तमान महामारी इतना विकराल रूप इसलिए भी धारण कर पायी, क्योंकि उसकी अचूक पहचान के लिए अभी भी कोई सस्ता, त्वरित और सरल उपाय नहीं है. इस बीच त्वरित परिणाम देने वाले जो बहुत सारे नये टेस्ट आये दिन सुर्खियां बटोर रहे हैं, अनेक कारणों से अचूकता की कसौटी पर वे ‘लगा तो तीर नहीं तो तुक्का’ सिद्ध हो सकते हैं. विषाणु विशेषज्ञों का कहना है कि उन पर बहुत अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता. ऐसे में जनता के बीच व्यापक स्तर पर टेस्ट करवाना किसी देश के सीमित साधनों का अपव्यय हो सकता है.कोरोना वायरस से लड़ने के लिए गठित भारत के राष्ट्रीय कार्यबल (नेशनल टास्क फ़ोर्स) का उचित ही कहना है कि इस वायरस से होने वाली ‘कोविड-19’ नाम की बीमारी की पहचान के लिए सभी प्रमाणिक प्रयोगशालाओं को ‘पीसीआर’ (पॉलीमरेज़ चेन रिऐक्शन) वाली विधि का उपयोग करना चाहिये. रक्त का नमूना लेकर उसमें एन्टीबॉडी (एन्टीजन/प्रतिजन) ढूंढने वाली विधियों के आधार पर वायरस की पहचान करने से उसने मना किया है. सरकारी मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं को उन सभी नमूनों को पुणे के राष्ट्रीय विषाणु-विज्ञान संस्थान (नैश्नल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरॉलॉजी– एनआईवी) के पास भेजना होता है, जिनमें ‘कोविड-19’ की पुष्टि पायी गयी है.
भरोसेमंद ‘पीसीआर’ विधि
विश्व के प्रमुख वायरस विशेषज्ञों का भी यही मत है कि ‘पीसीआर’ विधि में समय ज़रूर लगता है, पर उसके परिणाम सबसे भरोसेमंद होते हैं. भारत में सरकारी अस्पतालों एवं प्रयोगशालाओं में ‘कोविड-19’ की पहचान के परीक्षण मुफ्त हैं. किंतु राष्ट्रीय कार्यबल के नियमों के अनुसार, मान्यता प्राप्त निजी प्रयोगशालाएं 4,500 रूपये तक की फ़ीस ले सकती हैं. इस फ़ीस में 1,500 रूपये आरंभिक ‘स्क्रीनिंग टेस्ट’ के लिए और 3,000 रूपये वायरस की पुष्टि करने वाली जांच-परख के लिए हो सकते हैं. जब हर टेस्ट लभगभग साढ़े चार हज़ार रूपये मंहगा हो, तो स्वाभाविक है कि भारत में बिना किसी उचित कारण या संदेह के व्यापक स्तर पर टेस्ट नहीं कराये जा सकते. यूरोप-अमेरिका में भी ऐसा नहीं हो रहा है.
नया कोरोना वायरस ‘सार्स-कोव-2’ चीन से चल कर सारी दुनिया में फैला है. इसलिए आरंभ में सब जगह पहले यह जानने का प्रयास किया गया कि चीन में ‘कोविड-19’ के क्या-क्या लक्षण किस अनुपात में देखने में आये. वहां 55,000 लोगों के केस-पेपरों के आधार पर पाया गया कि उनमें से 90 प्रतिशत को बुख़ार चढ़ा, 70 प्रतिशत को सूखी खांसी आने लगी, 30 प्रतिशत खांसने के साथ-साथ कफ (बलगम) भी निकाल रहे थे और 4 प्रतिशत अपने आप को बहुत ही थका-हारा अनुभव कर रहे थे. सांस लेने में कठिनाई, गले में ख़राश, मांसपेशियों या जोड़ों में दर्द, मितली और उल्टी, नाक बंद हो जाने और दस्त जैसे लक्षण बहुत कम रहे.
टेस्ट के नियमों में संशोधन
इन्हीं लक्षणों के आधार पर भारत में 19 मार्च तक केवल उन्हीं लोगों की जांच-परख की गयी, जो विदेश से आये थे या किसी ऐसे व्यक्ति से मिले थे, जो प्रयोगशाला परीक्षण में ‘कोविड-19’ का रोगी साबित हुआ था. किंतु अस्पतालों में संक्रमित लोगों की भर्ती बढ़ने के बीच जब इस नियम की काफ़ी आलोचना होने लगी, तब ‘आईसीएमआर’ (इंडियन काउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च) ने 20 मार्च को अपने नियमों में संशोधन करते हुए कहा कि अस्पतालों में भर्ती उन सभी लोगों में कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच-परख होनी चाहिये, जिनमें न्युमोनिया (फुप्फुसशोथ) से मिलते-जुलते लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं.
उस समय सरकारी प्रयोगशालाएं हर दिन संक्रमण के केवल 90 नमूनों की ही जांच-परख कर पा रही थीं. मार्च का अंत आने तक इन प्रयोगशालाओं की संख्या 144 हो चुकी थी. इस बीच लगभग 50 निजी प्रयोगशालाओं को भी ‘कोविड-19’ की पहचान के टेस्ट करने की अनुमति मिल गयी है. प्रयोगशालाओं की कुल संख्या लगभग 200 तो हो गयी है, पर कई कारणों से वे अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रही हैं. मार्च का अंत आने तक सरकारी प्रयोगशालाएं अपनी क्षमता के केवल 36 प्रतिशत का ही उपयोग कर पा रही थीं. निजी प्रयोगशालाएं हर दिन औसन मात्र आठ टेस्ट ही निपटा रही थीं.
पूरी क्षमता का उपयोग संभव नहीं था
तथाकथित टेस्ट-किट (परीक्षण के लिए आवश्यक रसायनों एवं साधनों के सेट) की कमी, सही क़िस्म के प्रशिक्षित कुशल कर्मियों की कमी और सार्वजनिक परिवहन सहित सब कुछ लॉकडाउन (पूर्णतः बंद) होने के कारण संदिग्धों के मुंह और नाक से परीक्षण के लिए लिये गये नमूने प्रयोगशालाओं तक लाने-ले जाने में भारी कठिनाइयां इस राह की मुख्य बाधाएं थीं आज भी हैं. रेल, सड़क और हवाई यातायात बंद होने से देश की निजी प्रयोगशालाएं वायरस की पुष्टि वाले नमूने पुणे स्थित राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान (एनआईवी) को भी नहीं भेज पा रही थीं. ऐसे में अपनी पूरी क्षमता का उपयोग उनके लिए संभव ही नहीं है.
यह स्थिति अभी कुछ और समय तक बनी रहेगी. सरकार टेस्ट-किट तो आयात द्वारा जुटा सकती है, 10 लाख किट आयात किये जा रहे हैं, पर बाक़ी समस्याएं किसी आयात द्वारा नहीं सुलझाई जा सकतीं. यही कारण है कि 31 मार्च तक भारत की प्रयोगशालाएं केवल 42,788 टेस्ट कर पायी थीं. जहां तक टेस्ट-किट और टेस्ट में लगने वाले रसायनों के आयात का प्रश्न हैं, सारी दुनिया में उनकी मांग एक साथ इतनी बढ़ गयी है कि भारत को यूरोप और उत्तरी अमेरिका के धनी-मानी देशों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है.